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लेंगिक समानता प्राप्त करना व महिलाओं को आर्थिक – सामाजिक रूप से सक्षम बनाना ही नारी सशक्तीकरण की परिभाषा देश – विदेश में प्रचलित है और इस पर हमारे देश की हर सरकार पूर्ण सजगता के साथ प्रयासरत रही है व वर्तमान सरकार ने भी किशोर न्याय कानून में संशोधन , बेटी बचाओ बेटी पढाओ अभियान ,मोबाइल में पैनिक बटन , मातृत्व अवकाश में बढ़ोतरी व मृत्यु प्रमाणपत्र में विधवा के नाम की अनिवार्यता आदि योजनायें बनाकर बहुत सारी उम्मीदें जगा दी हैं और निश्चय ही बहुत कुछ पूरी भी होंगी I जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में महिलाओं की उपस्थिति जरूर दर्ज हुयी है लेकिन लैंगिक असमानता को दूर करने की पहली जरूरी शर्त मानसिकता में बदलाव लाने की है I
यौन अपराध के लिए क्या केवल दुष्कर्मी ही दोषी है ? क्या कड़ा दंड देकर यौन अपराध ख़त्म हो जायेंगे ?क्या किशोर न्याय कानून में संशोधन के द्वारा दुषकर्म बंद हो गए ? श्रष्टिकर्ता ब्रह्मा जी की रचना आदिशक्ति माँ ने की और ब्रह्माजी ने पुरुष व नारी की रचना विश्व निर्माण के लिए की लेकिन लोग भूल गए हैं कि महिला ही ने पुरुष को बनाया व अकेला पुरुष महत्वहीन है I आज वही पुरुष नारी को दैहिक वासना जगाने वाली के रूप में प्रस्तुत कर रहा है मुख्य रूप से विज्ञापनों में I घर परिवार में पत्नी को पति रिझाने का कार्य सौंप दिया है जबकि सेक्स संतान प्राप्ति के लिए ही अनिवार्य हैIकुछ लोग कह सकते हैं कि यदि महिला साडी पहन कर रिझा सकती है तो बिकनी पहन कर क्यों नहीं I इस बात का समर्थन विकसित कही जाने वाली नारी भी कर सकती है Iतात्पर्य केवल इतना कि नारी के पतन के लिए केवल पुरुष ही नहीं बल्कि नारी स्वयं भी जिम्मेदार है I इसीलिए दुषकर्म जैसी घटनाएं परिवार के बीच होती रहती हैं जिन पर कानून रोक नहीं लगा सकता I पत्नी की इच्छा के विरुद्ध किया गया सेक्स भी दुषकर्म की श्रेणी में आता है और उसको घर में मौजूद सास या माएं प्रोतसाहित करती हैं Iस्त्री को भी समझना होगा कि वह उपभोग की वस्तु नहीं हैं I क्या महिला वस्तु विशेष के विज्ञापन में सौंदर्य प्रदर्शन बंद करेगी ? क्या परिवारों में पुरषों के द्वारा किये जा रहे अत्याचारों पर सभी महिलाएं एक मत से विरोध करेंगी I
बेटी बचाओ बेटी पढाओ अभियान में पहला कन्या भ्रूण हत्या में भी पुरुष से अधिक घर की अन्य महिलाएं अधिक जिम्मेदार हैं पुत्र की विकट लालसा व कन्या को पराये घर का विरवा मानने की मानसिकता और कन्या के विवाह में आने वाली समस्याओं की चिंता Iक्या कभी इन लोगों ने ये सोचा कि यदि संसार नारी विहीन हो जाये तो पुरुष का क्या अस्तित्व Iकानून कड़े बनाने के बावजूद लालच के अन्धकार में डूबे चिक्तस्क व अप्रशिक्षित नर्स भी यह अपराध करते हैं I नारी विहीन समाज की कल्पना कीजिए और समाज में कन्या भ्रूण हत्या न होने दें I
बेटी पढाओ में बेटियां पढ़ कर समाज व देश के हर क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज करा रही हैं परन्तु पारवारिक स्तर पर उन्हें समानता के बोध से दूर रखने की कोशिश की जाती है जैसे घर में एक बेटा और एक बेटी है तो यदि बेटी भाई का हिस्सा खा लेती है तो उसे माँ प्रताड़ित करती है और यदि भाई बहिन का हिस्सा खा लेता है तो माँ कहती है कि बेटा कोई बात नहीं वो तुम्हारा भाई है I इस बात को महिला ही कहती है I अब देखिये विकसित परिवार के बेटे का वैवाहिक विज्ञापन “ स्लिम, गोरी, सुशील , गृह्कार्यद्क्ष व कार्यरत वधू चाहिए “ यदि बेटी ने कोई शर्त लडके के वारे में रखदी तो वह असंसकारी हो गयी I यह उन परिवारों के हालात हैं जो बेटी तो मानते पर हैं पर वधू को बेटी नहीं मानते I बेटा जो शुरू से बेटी से ऊपर है वाले माहोल में पला बढ़ा है वह शिक्षित होने के वाबजूद भी पत्नी को बरावरी का स्थान नहीं देता I शिक्षित बेटी जब अपनी शादी शुदा जिंदिगी में असमानता का विरोध करती है तो मामला तलाक से ही ख़त्म होता है और बेटी पर चरित्रहीन होने का ठप्पा लगा दिया जाता है I पुरुष चाहे जो भी अमर्यादित कार्य करे परन्तु समाज की मानसिकता के अनुसार स्त्री को मर्यादा में रहना होगा Iक्या सीता जैसी पत्नी चाहने वाले लड़के स्वयं राम बनेंगे ? क्या कार्य स्थल पर पुरुष अपनी महिला सहयोगी को कनखियों से देखना बंद करेंगे ? क्या महिलाएं भी कार्य स्थल पर अपनी सहयोगी महिलाओं के साथ होने वाली अशोभनीय हरकतों व उनके द्वारा भी की गयी गलत बात का विरोध करेंगी ?
बेटियां पढ़ रही हैं और पढ़ें कुछ गलत नहीं पर उनके परिवार के द्वारा उन्हें सुपरवुमन मानना गलत और इसी मुख्य गलती की वजह से जब माँ बाप अशक्त हो जाते हैं तो वह प्रताड़ित होते हैं I बेटी और वधू के बीच की जाने वाली असमानता भी उनके प्रताड़ित होने का कारण बन जाती है I मोबाइल में पैनिक बटन , मातृत्व अवकाश में बढ़ोतरी व मृत्यु प्रमाणपत्र में विधवा के नाम की अनिवार्यता आदि योजनायें तो सरकारी आवश्यकताएं हैं जिन्हें सरकार कर रही है I बेटी और बेटे में अंतर करने वाली मानसिकता समाज से समाप्त करनी है I
बेटी और बेटे में अंतर करने वाली मानसिकता यदि समाप्त हो जाये तो कुछ भी नहीं बचेगा नारी के वास्ते करने को I नारी तो पुरुष से सबल है जो पुरुष को विकट प्रसव पीड़ा सहकर जन्म देती है I उसकी सहनशीलता व ममत्व ने पुरुष को सबल होने का गुमान करा दिया है I
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