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बुजुर्ग मां -बाप और बच्चे

Social issues
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समाज में वरिष्ठ नागरिकों अर्थात बुजर्गों की स्थिति पर प्रायः चर्चा होती रहती है I उनकी दयनीय आर्थिक और सामाजिक स्थिति की भयावाहता प्रकट करते हुए कानून बनाने की वकालत की जाती है I क्या पिता और पुत्र के संवेदन शील रिश्ते को कानून की तराजू पर तौला जा सकता है ? क्या बुजुर्ग माता – पिता को वृद्धावस्था में अपने पुत्रों के विरुद्ध जीवन निर्वाह के लिए आवश्यक धन मांगने के लिए अदालत का दरवाज़ा खटखटाना ही विकल्प है ? नहीं, इस कम्पुटर संस्कृति में पिता के लिए यह उचित होगा कि वह अपने पिता होने के अंहकार को छोड़कर एक दोस्त के नाते अपने बच्चों को जितना सहारा दे सकें उतना देंI बेटे को समर्थ बनाने में अपने किये योगदान पर गर्व करें I बच्चे आपके दुश्मन नहीं I
हम सभी प्राणी इस धरा पर अपने माता-पिता के संयोग से आयेI जन्म देने वाली माँ वात्सल्य की मूर्ति, सहनशील और हर समय अपनी संतान की चिंता करने वाली प्रथम शिक्षक के रूप में जानी जाती हैI शायद ही कोई भी ऐसा इंसान होगा जो अपनी माँ के विरोध में कुछ भी सुन पायेगा लेकिन इसके उलट संतान अपने पिता के विरोध में खड़ी होती है ऐसा क्यों ? पिता सत्ता का पर्याय है और वह अपनी सत्ता को एक सक्षम और समर्थ व्यक्ति को सोंपना चाहता हैI अपनी संतान को समर्थ और प्रभावशाली व्यक्तित्व देने के लिए वह अपने प्रेम की अभिव्यक्ति कठोरता के साथ करता है और माँ अपने सरल प्रेम के द्वारा अपनी संतान को पिता का मंतव्य समझाती है फिर भी एक निश्चित दूरी पिता एवं पुत्र के बीच बनी रहती है ऐसा क्यों ? जब हमारे समाज में संयुक्त परिवार हुआ करते थे तो पिता को अपना प्रेम बच्चों को छिपा कर देना होता था क्योंकि बुजर्गों के सामने अपने बच्चे को प्यार करना बड़ों का अनादर करना माना जाता था इसीलिए तब पिता एवं पुत्र के बीच एक डर से प्रभावित दूरी होती थी परन्तु विरोध तब भी होता थाI उस विरोध के स्वरूप की व्याख्या करना समय की आवश्यकता नहीं हैI जब एकल परिवार हो गए तो पिता और पुत्र के बीच संवाद ज्यादा होने लगा I प्रेम का प्रकटीकरण सत्तात्मक कठोरता के साथ दिखाई देने लगा I मानवीय विचारों में अंतर ने विरोध को दिशा दीI यंहा भी मां ने पिता और पुत्र के बीच एक सेतु का कार्य किया I पिता की कठोरता और मां के सरल प्रेम ने बेटे को एक समर्थ और सक्षम व्यकतित्व प्रदान किया I समय की चाल को देखते हुए पिता ने पुत्री को भी सशक्त बना कर समाज में पुत्रों के बराबर खड़े होने लायक बना दिया I अब पुत्रों की तरह पुत्रियाँ भी घर से बाहर निकल कर काम करने लगीं I इस बदले हुए माहोल में पिता को बदलना आवश्यक हो गया पिता ने कठोरता के कवच से बाहर आकर अपने बच्चों से सीखना शुरू कर दिया I मोबाइल और लैपटॉप चलाना शुरू कर दियाI समय और अर्थ ने समाज को तीन वर्गों में विभक्त कर दियाI एक वो जिनके बच्चे अपने माँ – बाप को छोड़कर विदेश या देश में इतने दूर चले गए कि माँ बाप से केवल मोबाइल पर ही बात हो पाती हैI दूसरा वर्ग वो जिन माता पिता के पास जीवन यापन के लिए समुचित धन नहीं है और अपने बच्चों के साथ रहना पड़ता है उनको घर के काम काज करने पड़ते हैं ताकि नौकर को दिया जाने वाला धन बचाया जा सके I तीसरा वर्ग वह जिनके बच्चे सामान्य धनोपार्जन करते हैं उन माता –पिता को अकले गाँव में रहकर सामान्य से भी बद्तर जीवन जीना पड़ रहा है I बुजुर्गों की इस स्थिति के लिए एक कारण और भी है वह है बहू को बेटी की तरह प्यार और सम्मान न देना जो कि इस नारी शशक्तिकरण के युग में किसी भी बेटी को मान्य नहीं I बहू से आपको बेटी की तरह सम्मान चाहिए तो उसपर आपको प्रेम की बरसात करनी होगी I
तीनों वर्गों में एक बात समान है बुजुर्गों की बच्चों से दूरी और अकेलेपन की लेकिन आर्थिक स्थिति बिलकुल भिन्न I क्या आर्थिक सुधार कानून के माध्यम से हो पायेगा ?
बढता उपभोक्तावाद और महत्वाकIन्छाये बुजुर्गों और बच्चों के बीच की दूरी को प्रदर्शित कर रही हैं जबकि ऐसा नहीं है जरूरत है केवल दोनों के बीच समन्वय की I पिता को पुरानी कहावत “जैसे ही पिता का जूता बेटे के पैर में आ जाये वैसे ही बेटा दोस्त हो जाता है “ पर अपने पिता होने के अहंकार को त्याग कर सच्चे दिल से अमल करना होगा और बेटे को भी ध्यान रखना होगा कि चाहें मन व विचारों में कितना भी अंतर हो लेकिन शरीर का रिश्ता नहीं बदल सकता वो तो रहेगा ही I श्री कृष्ण मुरारी पहाड़िया जी की निम्नांकित पंक्तिया शाश्वत रूप से सत्य है I
पूज्य पिता ने जल से सींचा मां ने सौंपी अपनी माटी,
इन दोनों के महामिलन से ही निर्मित अपनी काठी I

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