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सियासत का हथियार -आरक्षण

Social issues
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भारतीय संविधान निर्माताओं ने सामाजिक व शेक्षणिक रूप से पिछड़े लोगों को बराबरी पर लाने की भावना के तहत आरक्षण लागू किया था और यह व्यवस्था 10 वर्ष के लिए थी और डॉ भीम राव अम्बेडकर साहब ने भविष्य को सरकार के विवेकाधिकार पर छोड़ दिया था. 67 साल बीत जाने के उपरांत यह स्पष्ट दिख रहा है कि संविधान की मूल भावना पर आज सियासत भारी है.क्या यह आकलन नहीं होना चाहिए कि संविधान में जिस मकसद से आरक्षण की व्यवस्था की गयी थी वह कितनी सफल रही? यदि आकलन होना चाहिए तो संघ प्रमुख मोहन भागवत जी ने आरक्षण की जरूरत पर समिति गठित कर समीक्षा करने और इसका लाभ लेने की समय सीमा तय करने को कहा तो क्या गलत कहा?क्या बिडम्बना है कि जाति आधारित सियासत के मद्दे नजर भाजपा ने भी सरसंघचालक के बयान से असहमति जता दी. बसपा प्रमुख मायावती जी ने आन्दोलन की धमकी दे डाली.लालू प्रसाद यादव जी ने पिछड़ों को एकजुट कर माँ का दूध याद दिलाने की धमकी देते हुए भाजपा को चुनोती दे दी. परिणामतः संघ की ओर से भी सफाई आ गयी. कुछ बुद्धिजीवियों का मानना यह है आरक्षण के मुद्दे पर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत जी का बयान का महत्व इसलिए कम हो गया क्योंकि बिहार में चुनाव है. चुनाव के समय कोई भी पक्ष इस विषय के गुण दोष पर ईमानदारी से चर्चा नहीं करेगा.जब से केंद्र में भाजपा सत्ता में आई है तब से अब तक आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश , राजस्थान , छत्तीसगढ़, माहराष्ट्र, हरयाणा , दिल्ली , झारखण्ड , जम्मू & कश्मीर में चुनाव हो चुके हैं. बिहार में होने वाले हैं, सन 2016 में असम , तमिलनाडु , केरला , पोंडिचेरी आदि में, 2017 में उत्तर प्रदेश , पश्चिम बंगाल आदि में होंगे. इस तरह चुनाव हर साल होते रहेंगे और इस अहम् मुद्दे पर कोई चर्चा नहीं करेगा. सवाल यह है कि राजनैतिक दलों के बीच आरक्षण के मुद्दे पर क्या किसी भी अहम् मुद्दे पर गंभीर चर्चा की गुंजाईश है?जब माननीय सांसद संसद में गंभीर बहस करने से दूर भागते हैं तो सार्वजनिक रूप से आरक्षण के मुद्दे पर कैसे बहस के लिए सहमत होंगे.
अब किसी भी जाति का समर्थन लेने के लिए आरक्षण एक हथियार है इसी होड़ में अगड़ी जाती के मतदाता नाराज न हो जायें राजस्थान सरकार ने आर्थिक आधार पर अगड़ी जाति के लोगों के लिए 14%आरक्षण सुनिश्चित कर दिया है.क्या इस प्रकार के कदम से यह आकलन हो पायेगा कि 10 साल के लिए की गयी व्यवस्था 65 साल में भी क्यों मुर्तिरूप नहीं हो पाई ?
सदियों से दबे- कुचले वर्ग को समर्थ बनाने की व्यवस्था मूल समस्या का समाधान करने की बजाय खुद एक समस्या बन गयी. यह समस्या इन वर्गों को वोट बैंक समझने वालों ने बनाई है. वोट बैंक के लिए आरक्षण की राजनीती से ऊपर उठने का समय आ गया है. नहीं तो वह दिन दूर नहीं जब देश में सडकों पर वर्ग संघर्ष दिखाई देने लगेगा. क्या यही जाति आधारित राजनीती करने वाले नेता वर्ग संघर्ष के नायक बन जायेंगे ? बुद्धिजीवी वर्ग को आरक्षण के अहम् मुद्दे पर सशक्त चर्चा करनी चाहिए ऐसा सोचे बगैर कि हमने ऐसा कह दिया तो विरोधी विचारधारा का समर्थन हो जायेगा. राजनेता तो एक दूसरे की सराहना करते ही नहीं. उनकी तो विरोध करने की प्रवर्ती हो गयी है अपने विरोधी की किसी भी बात को अच्छा मानना ही नहीं है. इसीलिए बुद्धिजीवियों पर इस देश की जनता ने परोक्ष रूप से जिम्मेदारी डाल दी है कि संविधान निर्माताओं की आरक्षण के प्रति मूल भावना का सही मूल्यांकन और क्रियान्वयन हो

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