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संसद के मानसून सत्र पर विश्लेषण

Social issues
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संसद का पिछला सत्र यानि मानसून सत्र भारत के लोकतंत्र का एक दुखद इतिहास बन गया.जिसमें देश के लिए संसद ने कोई कार्य नहीं किया और देश वासियों के द्वारा कमाए गये पैसों का नुकसान हमारे माननीय कहे जाने वाले नेताओं ने किया. क्या इन राजनेताओं के पास इतना नैतिक साहस है कि वह अपनी इस भूल के लिए राष्ट्र से क्षमा मांग लें?क्या यह लोग मानसून सत्र के बर्वाद होने पर लाभ और हानि का विशलेषण और देश पर पड़ने वाले असर पर चिंतन करने के लिए तैयार हैं? कदापि नहीं. सरकारी पक्ष केवल इस बात का ढोल पीटने में लगा है कि कांग्रेस देश हित के कामकाजों में अवरोध उतपन्न कर रही है और कांग्रेस भूमि अधिग्रहण संसोधन बिल को बापस लिए जाने पर जश्न मना रही है.इसी तरह जी एस टी बिल के लिए विशेष सत्र बुलाने की बात पर सरकार के पीछे हटने पर खुश है.यह है देश के राजनेताओं का चरित्र जो अपने दलगत राजनैतिक हित के अलावा कुछ सोचना नहीं चाहते. सरकार के मंत्री क्या विचार करेंगे कि उनकी भूमि अधिग्रहण संसोधन बिल को पास कराने की हठधर्मिता ने देश को एक साल पीछे धकेल दिया. इसी तरह वह जी एस टी बिल जो कि पिछली सरकार ने पास कराने के लिए बनया था उसे कांग्रेस का हाई कमान यह कह कर अड़ंगे लगा रहा है कि विपक्ष का कोई बिल नहीं होता.यह भी ठीक है कि माननीय मोदी जी जब गुजरात के मुख्य मंत्री थे तो जी एस टी बिल के सबसे बड़े विरोधी थे.क्या यह कांग्रेस के स्तर पर कहा जाना सही है कि विपक्ष का कोई बिल नहीं होता? सवाल यह है कि क्या संसद जिसे भारतीय जनतंत्र की शान कहा जाता है केवल मनमाने विरोध करने का अड्डा बन गयी है?
यह भी स्पष्ट है कि पिछले दस वर्षों के संसद के कार्यकलापों का मूल्यांकन किया जाये तो स्पष्ट हो जाता है कि अनेक सांसदों के कार्य कलाप, आचार- विचार और व्यवहार में उत्तरदायतित्व बोध की कमी झलकती है.क्या आज के संसद अनभिज्ञ हैं या उनमें सही गलत का आकलन करने की क्षमता नहीं है?क्या वह दलगत अनुशाशन का पालन कर रहे हैं?क्या दलगत अनुशाशन राष्ट्र हित के ऊपर है ? किसी भी सांसद ने अनुकरणीय साहस दिखाते हुए मतदातओं के बीच या मीडिया में संसद के ठप्प रहने से हुए देश वासियों के अपव्यय किये करोड़ों रुपये के मुकाबले अपने वेतन भत्तों को छोड़ने का एलान करने की हिम्मत जुटाई. चाहें सरकारी पक्ष के राजनेता हों चाहें विपक्ष के सभी देश हित की बातें भूल कर बिहार प्रान्त के चुनाव जीतने के प्रयासों में लिप्त हो गए.क्या सत्ता ही सबका मुख्य मकसद है?
अपवादों को छोड़ दें तो संसद में अधिकांश लोग अपने दल में शीर्ष नेत्रत्व से बनाये घनिष्ठ संबंधों के कारण टिकट पाते हैं और काले धन का उपयोग कर चुनाव जीतते हैं. अपने क्षेत्र में दो तीन दशक सेवा कर संसद में आने वाले नेता बहुत कम हैं. इसीलिए यह बात बेमानी लगती है की सभी सांसद संविधान की मूल भावना को समझते हुए संसद में आचरण करेंगे. आप स्वयं देख सकते हैं कि 1952 से 1962 के दौरान संसद के कार्यकलाप और पिछले दस वर्षों के संसद के कार्यकलाप में कितना बड़ा अंतर है.क्या मीडिया और विद्वान लोग इस अहम् मसले पर देश भर में चर्चा करेंगे.
अभी कुछ दिनों पहले राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और सरकार के बीच समन्वय बैठक हुयी.माननीय मोदी जी के “सबका साथ सबका विकास” के उद्देश्य की चर्चा हुयी लेकिन यह चर्चा नहीं हुयी कि सरकार विपक्ष का साथ लेने में क्यों फेल हुयी. माननीय मोदी जी देश के सबसे ज्यादा जिम्मेदार पद पर आसीन है इसलिए जनता की उनसे सबसे अधिक उम्मीदें हैं. जनता यह सुनना पसंद नहीं करती कि कार्य में कौन अवरोध पैदा कर रहा है और सरकार के सामने क्या समस्याएँ हैं. जनता तो जिम्मेदार व्यक्ति से केवल आशा करती है.सरकार को भी आत्म चिंतन करना चाहिए कि क्या कोई तरीका था जिससे संसद ठप्प नहीं होती और करोड़ों रुपयों का अपव्यय नहीं होता.क्या देश के कार्य को सुचारू रूप से चलाने के लिए संख्या बल के अलावा कोई और सर्वमान्य उपाय नहीं है?
यह माना जाता है कि संघ व्यक्ति का निर्माण करता है उसे संस्कारी और उत्तरदायी बनाता है इसीलिए राजनीती में संघ के कार्यकर्ता काम करते हैं तो उन सभी संसकारी कार्य कर्ताओं को बेतुके और बेहुदे बयाँ जारी करने वाले नेताओं पर भी लगाम कसनी चाहिए.भारत वर्ष में रहने वाले हर व्यक्ति के मन में दत्ता हसबोले जी की अभिव्यक्ति “संघ भारत , पाकिस्तान और बांग्लादेश को एक ही संस्कृति का हिस्सा मानता है “ पर अटल विश्वास हो, को सुनिश्चत करना भी सरकार का काम है क्योंकि सरकार को संघ का समर्थन प्राप्त है. माननीय मोदी जी आपको भी मतदाताओं के बीच प्रधानमंत्री के पद की गरिमा के अनुरूप बोलना चाहिए.आप देश का प्रतिनिधत्व करते हैं देश की गरिमा ही आपकी गरिमा है

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