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भारत वर्ष को स्वतंत्र हुए 68 वर्ष पूर्ण हो चुके हैं अब समय आ गया है कि देश में लागु आरक्षण व्यवस्था का पुनरवलोकन किया जाये. सरकार और संसद को दलगत राजनीत से ऊपर उठकर जातिगत आधारित आरक्षण नीति पर विचार करना चाहिए. सरकार व संसद को सोचना चाहिए क्या किसी एक व्यक्ति को बार बार आरक्षण का लाभ मिलना चाहिए या बार बार पीढ़ी दर पीढ़ी .क्या कॉलेज में प्रवेश से लेकर नौकरी और फिर प्रमोशन तक में आरक्षण का लाभ मिलना चाहिए? आरक्षण के बल पर जो सरकारी सेवाओं में पहुँच गए, विधान सभा और संसद तक पहुँच गए, मंत्री और राज्यपाल बन गए, क्या उनके बच्चे, नाती और पोते भी आरक्षण के अधिकारी होने चाहिए? सबसे बड़ा सवाल यह है कि मौजूदा जाती आधारित आरक्षण के चलते हुए क्या सारे दलितों और पिछड़ों की जिंदगी बदल गयी है. नहीं बल्कि इस नीति के चलते पिछड़े वर्ग और दलितों में भी गिनी चुनी दबंग जातियां और पहले से ही खाते पीते वर्ग के लोग आरक्षण की मलाई चाट रहे हैं. यह सत्य है कि जिन जातियों की जनसँख्या कम है उन्हें आरक्षण का फायदा नहीं मिल रहा बल्कि यह फायदा बड़ी और दबंग जातियों के हिस्से में जा रहा है .राजनीती का कमाल देखिये कि गुजरात का संपन्न पटेल समाज भी जातिगत आधार पर आरक्षण मांग रहा है. राजस्थान की मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे सिंधिया जी भी राजस्थान विधान सभा के मानसून सत्र में आरक्षण पर एक बिल लाने के लिए आतुर हैं जिसमें गुर्जर जाति के लिए 5% और सवर्णों के लिए 14% आरक्षण का प्रावधान कर रही हैं. विचार कीजिये क्या यह सही है. क्या आरक्षण का आधार आर्थिक – सामाजिक तय नहीं किया जा सकता है? क्या आरक्षण व्यवस्था में जाती विशेष , धर्म विशेष का नाम लेने की प्रथा का अंत नहीं किया जा सकता?
देश के राजनेता आँखे खोलो जाती,धर्म व वर्ग विशेष आधारित राजनीती को छोड़ो और आर्थिक आधार पर आरक्षण की व्यवस्था बना कर देश के दबे, कुचले गरीबों का उत्थान करो. देश को जाती, धर्म और वर्ग विशेष के नाम पर बाँट कर वोट की राजनीती बंद करो.#आरक्षणव्यवस्था
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