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केंद्र सरकार ने सन 1932 के बाद पहली बार हुयी सामाजिक, आर्थिक और जाति आधारित जनगणना के केवल ग्रामीण भारत के आंकड़े प्रकाशित किये. जिससे यह स्पष्ट हो रहा है कि आजादी के 68 वर्ष बाद भी हमारे गाँव गरीब और पिछड़े हुए हैं और लोग जिन्दगी की जरूरतों से वंचित हैं. इस पर माननीय केंद्रीय वित्त मंत्री जी का एक बहुत पुराना सुना सुनाया जुमला आया “केंद्र व राज्य सरकारों को नीतियाँ बनाने में जनगणना के इन आंकड़ों से बहुत अच्छी मदद मिलेगी.”
यह बयाँ केवल इस लिए आया है कि यह सरकार से सम्बद्ध मामला है. वैसे इस देश के राजनेता 2011 से यह जानने के लिए ज्यादा उतसुक थे कि आज जनसँख्या में अन्य पिछडा वर्ग और अन्य जातियों का क्या प्रतिशत है. अभी यह जानकारी अधूरी है क्योंकि शहरी क्षेत्र के आंकड़े प्रकाशित होने बाकी हैं.
मेरा सवाल यह है कि क्या जातिगत आंकड़े जरूरी हैं?इन आंकड़ों का आर्थिक नीतियां बनाने में क्या और कैसे प्रयोग होगा?यह स्पष्ट है कि जातिगत आंकड़े जाति आधारित वोट बैंक की राजनीती को सुद्दढ़ करने के लिए ही आवश्यक हैं. क्या इस देश में कोई भी दमदार नेतृतव नहीं है जो जाति,धर्म और वर्ग से ऊपर उठकर केवल गरीब और अमीर की बात करे?
इन आंकड़ों से ग्रामीण भारत की बदहाल स्थिति सामने आई है उसमें क्या वर्तमान नीतियों के चलते कोई अंतर आएगा ?पूर्व प्रधान मंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी ने गरीबी हटाओ अभियान चलाया था जिसकी वास्तविकता इन सामाजिक आर्थिक आंकड़ो से साफ़ हो गयी. स्थिति जस की तस? आखिर क्यों नहीं हटी गरीबी?कहाँ रह गयी कमी?
निश्चित रूप से हमारी नीतियों में खामी. औद्योगिक विकास के लिए अँधा धुंध ग्रामीण संसाधनों के दोहन और पुश्त दर पुश्त जमीनों के बंटवारे से छोटे होते जा रहे काश्तकारों के लिए कृषि करना लाभकारी नहीं रहा और वह शहरों में मजदूरी के लिए विवश होने लगा. इसकी प्रतिक्रिया स्वरुप शहरों को सस्ता मजदुर मिलने लगा. कहीं न कहीं हमारी लोकतान्त्रिक राजनीत और प्रशाशन में भी खामी है जो अरबों – खरबों रुपयों से ग्रामीण विकास के ढोल पीटने की पोल खुल गयी.विश्व व्यापार संगठन के दवाब में बनाई जाने वाली नीतियाँ भी इस स्थिति के लिए जिम्मेदार हैं.उल्लेखनीय है कि वर्ष 2007 में अमेरिका में वर्ल्ड फ्लू व्यारस फैलने के बाद भारत ने वहां के कृषि उतपादों पर रोक लगा दी थी. उसके बाद से भारत में मुर्गी पालन उद्योग में तरक्की होना शुरू हुयी और आज 12.96 अरब का है सालाना भारतीय मुर्गी पालन उद्योग. असलियत यह है कि भारत विश्व व्यापार संगठन की अपीली अदालत में अमेरकी मुर्गी पालन उद्योग के उतपादों के आयात पर कई सालों से जारी प्रतिबन्ध लगाने का केस हार गया है.परिणामतः भारत को अमेरिकी मुर्गी पालन उद्योग के उतपादों का आयात फिर बहाल करना होगा. इसका असर यह होगा कि अमेरिकी मुर्गा भारतीय मुर्गे से आधी कीमत पर बाज़ार में बिकेगा.अमेरिका को सालाना 30 करोड़ डॉलर का मुनाफा होगा और भारतीय मुर्गी पालन उद्योग को नुकसान होगा. आगे का भविष्य कि जो लोग इस क्षेत्र में कार्य रत होंगे वह या तो बेरोजगार हो जायेंगे या फिर मजदूर.
इसी तरह से दालों के आयात पर भारत ड्यूटी नहीं लगता जबकि WTO के अनुसार 300% तक ड्यूटी भारत लगा सकता है. नतीजतन आयातित दाल बाज़ार में सस्ते दामों में उपलब्ध और किसान को उसके द्वारा उतापादित दाल का उचित मूल्य मिलना बंद .इसीलिए किसान ने दालों के उतपादन से मुख मोड़ लिया. जब उसके उतपादन का सही मूल्य नहीं मिलेगा तो मज़बूरी में उसे खेती से मुँह मोड़ना पड़ेगा.
यह उचित समय है सरकार के लिए अपनी नीतियों की खामी तलाशने के लिए और यह सोचने के लिए कि कहीं उसकी नीतियाँ ग्रामीण भारत के हालत बद्तर तो नहीं कर रहीं हैं.
अब जनता के सब्र की और परीक्षा न ली जाये. कहीं उसकी लोकतान्त्रिक प्रतिबद्धता कमजोर न पड़ जायें?
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